Friday, February 26, 2010

सुनहरे पल



चलते चलते ये कहाँ आ गयी हूँ मैं ,
कोई भी चेहरा पहचाना नहीं लगता।
किसी से भी रिश्ता पुराना नहीं लगता ,
जाने कहाँ गए वो पहचाने हुए चेहरे ,
कल तक लगते थे जो मुझे मेरे
आज है तन्हाई कोई पास नहीं है ,
किसी से अपनेपन का अहसास नहीं है
ढूंढती है नजरें उनको ही आजकल ,
कल तक जो होते थे साथ हर पल
सोचती हूँ तन्हा बैठे मैं हर पल,
क्या लौटकर आयेंगे मेरे सुनहरे पल ???:(

10 comments:

  1. wah wah.......miss kaviyatri;)

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  2. hoon nai abhi ban rahi hoon..:):)

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  3. waah waah waah....bahot achche..:)

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  4. इस नव उपभोक्तावादी युग में हर चेहरा अजनबी हो गया है.रिश्ता पुराना क्या यहाँ तो कोए रिश्ता ही नहीं पनपता.तन्हैयाँ हैं तो अच्छी हैं वही साथ देती हैं.
    श्वेता जी अच्चा प्रयास हम आपकी और कविता पढना पसंद करेंगे जल्दी डालें

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  5. DI MAINE KUCH ROMANTIC LIKHA HAI DEKHIYE NA

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  6. beautiful!! keep writing!! read mine as well!!
    visit my blog, i also have similar stuffs...

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  7. kuch apnii kuch apne- walon ki talash .?.
    kuch hamri kehee bhi padho ab .pe ho kehan aap?

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. बहुत अच्छे भाव हैं..

    पर चलना ही ज़िन्दगी है ...
    लिखते रहिये....

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