मुग़ल साम्राज्य के पतन के पश्चात् इस चित्रकला शैली की शुरुआत हुई और लगभग एक शताब्दी तक पटना कलम शैली काफी प्रचलित रही। १९९७ के बाद यह शैली बिलकुल समाप्त हो गयी। पटना कलम शैली के चित्र बिना विषय वस्तु को रेखांकित किये ही तुलिका एवं रंग से सीधे कागज पर बनाये जाते थे। इसके लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता था। इस चित्र शैली में रोज़मर्रा के जीवन का चित्रण किया जाता था।
यह चित्र शैली भागलपुर के लोकगाथाओं में सर्वाधिक प्रचलित बिहुला विषहरी की कथाओं के आधार पर चित्रित की जाती हैं।इस चित्र शैली में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। मंजूषा बांस की खंपाची की बनायीं हुई मंदिरनुमा आकृति होती है जिसपर चित्रकारी की जाती है। इस चित्रकला शैली के अंतर्गत पारंपरिक विषयों (जो लोकगाथाओं पर आधारित होती हैं) की चित्रकारी की जाती है ।
मधुबनी चित्रकला शैली (madhubani chitrakala shaili )
मधुबनी चित्रशैली का इतिहास काफी पुराना रहा है। मिथिलांचल की स्त्रियाँ एवं कन्याएँ विभिन्न पर्व त्योहारों आदि में विविध प्रकार के चित्र बना कर घर की दिवार तथा घर आँगन का कोना -कोना अलंकृत करती हैं। इस शैली में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता है। मधुबनी चित्रकला में चित्रित वस्तुओं को मात्र सांकेतिक रूप में ही प्रदर्शित किया जाता है। इसके कलाकार बिना किसी रेखांकन के रंगों से ही चित्र बनाते है। पहले चित्र उँगलियों से ही बनाये जाते थे फिर बांस की कुंची का प्रयोग शुरू हुआ। अभी के कलाकार निब (nib) का प्रयोग करते हैं। इनके अंतर्गत मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों के चित्र, फूल पेड़ एवं फलों के चित्र, तांत्रिक प्रतीकों के चित्र देवी-देवताओं के चित्र आदि बनाये जाते हैं।
इस शैली को तिब्बती शैली का ही एक रूप स्वीकार किया जाता है। इस शैली में बौद्ध शैली के सहज ही दर्शन होते हैं। इसका कारण है चित्रकारी तथा विषय वस्तू में बौद्ध जातक कथाओं संतों तथा तिब्बती साधुओं, आचार्यों और भगवान बुद्ध के धर्मोपदेशों का सजीव प्रस्तुतीकरण। ७ दलाईलामा के थंका चित्र भी बने हुए हैं जो अभी पटना संग्रहालय में मौजूद हैं।
सिक्की(sikki )
सिक्की कार्य हमारे राज्य में विशेषकर उत्तर बिहार में बहुत पहले से होता आ रहा है। मिथिला में शादी के समय लड़कियों की बिदाई में सिक्की के बने सामान दिए जाने की परंपरा रही है। सिक्की एक प्रकार की घास होती है जिसे रंगकर तथा लपेटकर विभिन्न प्रकार की रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुएं जैसे:-टोकरियाँ,दौरियां , बक्से, घड़े इत्यादि बनायीं जाती हैं।
बांस का कार्य बिहार के हस्तशिल्पों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस कार्य में पारंपरिक तथा जापानी शैली का अच्छा समन्वय देखने को मिलता है। इसके अंतर्गत बांस को विभिन्न आकर के टुकड़ों में काटकर विभिन्न प्रकार से किलों की सहायता से जोड़कर सामान तैयार किये जाते हैं। इसके द्वारा रसोई के उपकरण, बक्से, सजावटी सामान जैसे- गुलदस्ते, मुखाकृतियाँ, देवी देवताओं की आकृतियाँ तथा खिलौने आदि बनायीं जाती हैं।
बेंत एक प्रकार की घास होती है जो असम के समुद्र से प्राप्त होती है।सर्वप्रथम बेंत को आवश्यकतानुसार टुकड़ों में कट लेते हैं फिर मोड़ते हैं। मोड़ने के लिए इसे लेम्प की आग पर गर्म करते हैं जिससे ये नर्म होकर आसानी से मुड जाता है। उसके बाद उसे आवश्यकतानुसार आकारों में मोड़कर बुनाई का कम करते हैं।इसके द्वारा विभिन्न प्रकार की वस्तुएं जैसे:- फर्नीचर, झूले, टोकरी, डलिया, बक्से इत्यादि बनाये जाते हैं।
जूट के पौधे से प्राप्त रेशों द्वारा वस्तुएं बनायीं जाती हैं। इसके लिए विभिन्न प्रकार से फंदे लगाकर तथा गांठ देकर बुनाई करते हुए विभिन्न प्रकार के सामान तैयार किये जाते हैं। इससे आसनी , गलीचे, सजावटी सामान , झोले इत्यादि बनाये जाते हैं।
गुडिया बनाने का कम पुराने समय से महिलाओं द्वारा किया जाता रहा है। कपड़ों तथा ऊन के धागों को तरह- तरह से जोड़कर गुडिया बनाने का काम बिहार में होता आ रहा है इसका मुख्य कारण यह है कि यह बहुत सस्ते होते हैं। इसके द्वारा आदिवासी गुडिया तथा गुड्डे की जोड़ियाँ बनायीं जाती हैं। इसका उपयोग खेलने के लिए होता है।
सुजनी बिहार में बनने वाला गद्दा है इसका इतिहास इसी से जाना जा सकता है की इसका उपयोग पुराने समय में राजा महाराजाओं के दरबार में गाने बजने वाले कलाकारों के द्वारा अपने वाद्ययंत्र तथा अन्य कीमती सामान, किताब, इत्यादि ढकने तथा उसमें लपेटकर रखने के लिए किया जाता था।सुजनी बनाने के लिए पुरानी साड़ियों तथा धोतियों को एक साथ परत दर परत जोड़कर सिलाई की जाती है। इसके द्वारा बने सामानों पर विभिन्न प्रकार की कढाई द्वारा औरतें लोक शैली पर आधारित भिन्न भिन्न दृश्यों का चित्रण करती हैं।
एप्लिक का काम मुग़ल कल से ही होता रहा है। इसके द्वारा बने सामान का उपयोग राजा महाराजाओं तथा ऊँचे दर्जे के लोगों द्वारा किया जाता था। इसके अंतर्गत एक कपड़े को दुसरे के ऊपर जोड़कर तथा काटकर नमूने तैयार किये जाते हैं। इसके नमूने पारंपरिक होते हैं। इसके द्वारा शामियाना, चंदोवा, तम्बू इत्यादि बनाये जाते हैं।
हैण्डलूम से बने कपड़ों के लिए बिहार प्राचीन समय से जाना जाता है। बिहार के सूती वस्त्र तथा सिल्क हर जगह प्रसिद्ध हैं। भारत में तसर सिल्क का सबसे बड़ा उत्पादक बिहार ही रहा है। बिहार कारपेट तथा दरियों के निर्माण में हमेशा से ही अग्रणी रहा है। इसके अंतर्गत करघे का प्रयोग करके वस्त्र निर्माण किया जाता है। इसके द्वारा तैयार कपड़ों का उपयोग किसी भी तरह के कार्य में किया जा सकता है।
बिहार वस्त्रों पर की जाने वाली कलात्मक छपाई के लिए प्रसिद्ध है। भागलपुर, बेतिया, पटना, सारण, और नासिरगंज इस हस्तशिल्प के लिए प्रसिद्ध हैं। इसके द्वारा छपाई करने में सबसे पहले कपड़ों को ब्लीच करके धो लिया जाता है तथा लकड़ी के ब्लाक या ब्रुश से नमूने बनाये जाते हैं। लकड़ी के ब्लॉक में रंग को लगाकर कपड़ों पर उसे रखकर दबाया जाता है।
गुप्त काल में बिहार का कुर्किहार पीतल एवं कांसा धातु के प्रमुख केंद्र के रूप में विश्व प्रसिद्ध था। पीतल के सामान बनाने में तांबा तथा जस्ता का प्रयोग किया जाता है। कांसे का सामान बनाने में टिन तथा तांबा का प्रयोग किया जाता है। सबसे पहले घड़िया (एक विशेष प्रकार का बर्तन ) में तांबे को डालकर भट्ठी के ऊपर रखकर गर्म करते हैं। जब तांबा गलने लगता है तब उसमें जस्ता या टिन डालते हैं फिर जब वह पूरी तरह गर्म होकर पिघलने लगता है तब उसे सांचे (लोहे से बना) में डालकर बर्तन, कटोरी, सूप, ग्लास, देवी देवताओं की मूर्तियाँ आदि बनायीं जाती हैं।
टिकुली कला बिहार की प्राचीन कलाओं में से एक है। पहले यह कार्य बहुत ही पतले शीशे पर सोने और चाँदी के वर्कों द्वारा किया जाता था जिसे महिलाऐं अपने ललाट पर लगाती थी। इस कला के द्वारा चित्र बनाने के लिए सबसे पहले चित्र का आधार तैयार करते हैं। इसके लिए बोर्ड को गोल, आयत तथा वर्गाकार टुकड़ों में काटा जाता है फिर उसपर रंग चढ़ाया जाता है। इसी तैयार प्लेट पर चित्रकारी की जाती है।इस कला के द्वारा सुन्दर चित्र बनाये जाते हैं जो घरों की सजावट में काम आते हैं।
टेरा-कोटा का इतिहास काफी पुराना है।सिन्धु घाटी सभ्यता में इसके पुष्ट प्रमाण मिलते हैं।सबसे पहले मिट्टी को लेकर उसे साफ करते हैं इसके लिए मिट्टी को एक बर्तन में लेकर उसे पानी से भर देते हैं तथा उसे चलते हैं जिससे वह पानी में घुल जाये। जब पूरी मिट्टी फुटकर पानी में मिल जाती है तब उसे एक जालीदार कपडे से छान लेते हैं। इसी मिट्टी द्वारा वस्तुओं का निर्माण होता है। सबसे पहले मिट्टी को गुंध लेते हैं फिर उसके लोंदे बनाकर चाक पर चढाते हैं तथा सजावटी खिलोने, पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ, सुन्दर आकृतियाँ इत्यादि बनायीं जाती हैं।
पेपर मैशे बिहार के कई जगहों पर जैसे -पटना सिटी, मधुबनी, इत्यादि में बनता रहा है। छऊ नृत्य में इस्तेमाल होने वाला मुखौटा पेपर मैशे के द्वारा ही बना होता है। इसे बनाने के लिए कागज को एक बर्तन में डालकर पानी से भर देते हैं तथा ७-८ दिन तक छोड़ देते हैं। जब कागज पूरी तरह से गल जाते हैं तो पानी में से निकालकर उसे गोंद और मिट्टी(मुल्तानी) के साथ मिलाकर गुंध लेते हैं फिर उसे मनचाहा आकार देकर मुखौटे, सजावट के सामान, मूर्तियाँ, बक्से, डिब्बे, इत्यादि बनाये जाते हैं।
इतने हस्तशिल्पों के होने के बावजूद भी यहाँ के सामान्य लोग इसके प्रति जागरूक नहीं हैं । सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थानों द्वारा इनके लिए कई योजनायें बनायीं जाती हैं पर शिल्पकारों (artisans) के गरीब होने के कारण वे इन सुविधाओं का उचित लाभ नहीं उठा पते हैं जिसके कारण यहाँ के हस्तशिल्प पिछड़ते तथा लुप्तप्राय होते जा रहे हैं।:(:(
DI mai kya kahu is baar mai aapk kahne par ye soch k aayi thi thi ki kuch kamiya bhi pakdungi but this blog is AWESOME isme koi do rai nhi ki ise padh k log wah wah karenge
ReplyDeleteइतने हस्तशिल्पों के होने के बावजूद भी यहाँ के सामान्य लोग इसके प्रति जागरूक नहीं हैं । सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थानों द्वारा इनके लिए कई योजनायें बनायीं जाती हैं पर शिल्पकारों (artisans) के गरीब होने के कारण वे इन सुविधाओं का उचित लाभ नहीं उठा पते हैं जिसके कारण यहाँ के हस्तशिल्प पिछड़ते तथा लुप्तप्राय होते जा रहे हैं।:(:(----->>>>>>dont be sad di govt nahi to hum future mai kuch karenge ise bachane k liye ok:)
or di dhatu hast shilp pe aake pass banate hue bhi 1 pic thi na ??aap uspe bhi alag se blog likhiye na bohot accha banega wo blog bhi....:)
thnx sis.. :)
ReplyDeletedont be sad di govt nahi to hum future mai kuch karenge ise bachane k liye ok:)
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sis aise nahi hai govt ki bahut sari yojnayen hain....par shilpkar(artisans)un sabke bare mein jan hi nai pate....hain tht's y wo uska fayda bhi nai utha pate hain...aur fayda le jate hain bichauliye (third man)...
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aap uspe bhi alag se blog likhiye na bohot accha banega ...
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haan sis jaroor...kuch dinon mein hi tum padh sakogi wo bhi....thnx sujhaw k liye :):)
very informative shweta .nayee baatain ppata lageen ..
ReplyDeleteअपने हीं राज्य की विरासत से अंजान हम सबके लिए यह पोस्ट काफ़ी लाभप्रद है...
ReplyDeleteHats off mam .. Every politician shake one hands no one care our cultural heritage which can make difference bihar and also peopleof bihar among the world.
ReplyDeleteHope one day the government would wake..
very informative.thanks for sharing
ReplyDeleteहमारे राज्य के आर्थिक विकास में इन सभी कलाकृतियों का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है इसपर कार्य किया जाना चाहिए
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